कविता वत्स,बेटी पत्नी और बहन की मर्यादाओं से दूर
बेटी
पत्नी
और बहन की मर्यादाओं से दूर
किसी और अस्तित्व की तलाश में
घर के देहलीज लांघ
जब आँख उठाकर देखा
तो पता चला
कि मैं अब घर में नहीं
बाज़ार में हूँ।
बाज़ार…..
जहाँ निगाहों को पढ़ना
आसान नहीं
जहाँ अपने-पराए का
सम्मान नहीं
जहाँ रिश्तों का कोई
आधार नहीं
जहाँ सब कुछ है;
बस प्यार नहीं
जहाँ गिरतों को कोई
उठाता नहीं
जहाँ बिगड़े को कोई
बनाता नहीं
जहाँ सब आते हैं
एक मंज़िल की तलाश में
और मंज़िल
…हम्ममम!
मंज़िल बहुत ऊँचाई पर है
जहाँ हर कोई
जल्द से जल्द
पहुँचना चाहता है
फिर उसके लिए
चाहे किसी को
दबाना, सताना या
मारना ही
क्यों न पड़े
सच!
बहुत भयावह है
ये बाज़ार की ज़िन्दगी
वासना…
हवस…
और भूखी निगाहों के
चक्रव्यूह सी
और मैं
अभिमन्यु-सी अबोध
घिर गई हूँ
इन दूषित मानसिकताओं के
दुर्दर योद्धाओं के बीच
सच कहूँ!
अब मैं
घर लौटना चाहती हूँ
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